चानक प्रेम
नहि उतरल छल चान गगन सँ
छलै आइ भारी जिद ठनने।
जागि गेल छल प्रात निन्न सँ
उदयाचल सिन्दुर सन रँगने।
विश्मित पवन आँखि के मलि-मलि
देखि रहल छल दृष्य ठाढ़ भ’।
उगतै सुरुज चान जड़ि मरतै
आवि रहल छै किरण गाढ़ भ’।
मुशकि रहल छल चान, ठोर पर
छलै अपन स्नेहक शीतलता।
ताकि रहल छल बाट, मिलन कँे
छलै हृदय मे मधुर विकलता।
बनल नियम छै कालचक्र के
के जानत की हैत अशुभता।
के बाँचत, के भागत नभ सँ
हैत नष्ट किछु आइ अमरता।
प्रखर अग्नि सँ आइ सामना
करतै शीतल प्रभा चान केँ।
प्रेम समर्पण मे जीवन के
द’ देतै आहुति प्राण कँे।
अंग - अंग मे अग्नि पूँज सँ
फुटतै फोँका लाल-लाल भ’।
काँच देह नहि सहतै पीड़ा
सुन्दरता जड़तै सुडाह भ’।
पलक झपकिते घटित भेल किछु
सुखद् दृष्य नभ केँ प्राँगन मे।
शीश झुकौने सुरुज चान केँ
बाँधि लेलक निज आलिंगन मे।
भेल चान परितृप्त अंक मे
पूर्ण भेलै मोनक अभिलाषा।
पिघलि गेल छल सुरुज मिझेलै
कुटिल अग्नि के अहं पिपाशा।
मौन भेल छल दिनकर नभ मे
नव आनंद अपार उठा क’।
चान भेल किछु लज्जित,हर्षित
उतरि गेल अपने ओरिया क’
............सतीश चन्द्र झा, मधुबनी
1 टिप्पणी:
bahut neek lagal kavita
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